विज्ञापनों के फेर में सेहत का सत्यानाश
सुमन कुमार
क्या आपके इलाके में आटे की चक्की अब भी दिखती है? आपके घर में देशी घी अब भी तैयार होता है? दांत साफ करने के लिए नमक और सरसों तेल कितने लोग इस्तेमाल करते हैं? पीने के लिए सामान्य फिल्टर वाले पानी को घड़े में रखकर इस्तेमाल करते हैं या बोतलबंद पानी फ्रीज में रखकर? ये ऐसे सवाल हैं जो हमारी आपकी सेहत से सीधे जुड़े हुए हैं।
आज इस विषय पर लिखने को इसलिए मजबूर हुआ हूं क्योंकि भारत समेत दुनिया के नौ देशों में हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमें पीने के लिए जो बोतलबंद पानी मुहैया करा रही हैं उनमें से नब्बे फीसदी पानी में प्लास्टिक के अंश पाए गए हैं जो शरीर को कैंसर, नपुंसकता और आटिज्म जैसी बीमारियां दे रहे हैं।
अब जरा याद कीजिये पिछले दस वर्षों के दौरान इस देश में पानी की गुणवत्ता को लेकर चले अभियान को। देश के अलग-अलग हिस्से में पानी की अशुद्धि को लेकर कितना जोरदार अभियान चला है। एक बार को ये सच भी मान लें कि देश का पूरा भूगर्भ जल पीने योग्य नहीं रहा है (ऐसा है नहीं), तब भी होना ये चाहिए था कि उस जल को शुद्ध करने के संयंत्र लगाए जाते मगर हुआ क्या? हमारे सामने बोतलबंद पानी के विज्ञापन आने लगे और मध्यम वर्ग पूरी तरह बोतलबंद पानी की ओर मुड़ गया।
दरअसल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के काम करने का यही तरीका होता है। पहले वो विभिन्न एनजीओ तथा बहुराष्ट्रीय अध्ययनों के जरिये आपको ये समझाते हैं कि आप दशकों से जो चीज इस्तेमाल कर रहे हो दरअसल वो आपके लिए हानिकारक है, बदले में आप हमारे द्वारा बनाई गई चीज इस्तेमाल करो। विज्ञापन के झांसे में आकर लोग इस साजिश में फंस जाते हैं।
टूथपेस्ट के मामले में हम ये देख चुके हैं कि अब सारी ही कंपनियां भारतीय पारंपरिक मंजन प्रणाली की चीजें अपने उत्पाद में होने का दावा कर रही हैं जबकि पहले उनका दावा था कि पारंपरिक मंजन प्रणाली से हमारे दांतों को नुकसान पहुंचता है। दंत रोग विशेषज्ञ डॉक्टर आशुतोष झा सेहतराग से बातचीत में कहते हैं कि आधुनिक टूथपेस्ट से दांतों और मसूढ़ों के मजबूत होने की बात सिर्फ भ्रम है। दांत साफ करने के पारंपरिक तरीके में दातून को इस्तेमाल जरूर सावधानी से किया जाना चाहिए मगर नमक पीस कर हलका सरसों तेल से दांत और मसूढ़ों की मालिश बेहद फायदेमंद है।
ठीक इसी तरह देशी घी के मामले में हम दशकों से देखते आ रहे हैं कि कंपनियों ने हमें विज्ञापनों के जरिये पहले डालडा, फिर वनस्पति तेल और उसके बाद पता नहीं किन-किन तेलों के चक्कर में फंसाया और अब देश के जाने-माने आहार विशेषज्ञ ये साबित कर रहे हैं कि खाने में देशी घी का संयमित इस्तेमाल शरीर को नुकसान नहीं बल्कि फायदा ही पहुंचाता है।
बच्चों के लिए फास्ट फूड इस हद तक खतरनाक साबित हुआ है कि अब स्कूलों के प्रशासन को सख्ती से बच्चों के अभिभावकों को ये संदेश भेज रहे हैं कि टिफिन में फास्ट फूड भेजना प्रतिबंधित कर दिया गया है और घर का बना स्वास्थ्यकर भोजन ही बच्चों को देना चाहिए। आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि टीवी पर बच्चों को लुभाने वाले उत्पादों का विज्ञापन अकसर उस समय आता है जब आमतौर पर बच्चे छुट्टी में होते हैं और टीवी का रिमोट उनके हाथ में होता है।
एक और मजेदार उदाहरण आटे का है। घर में अपने हाथों से धुले गेहूं और अपने सामने चक्की में पिसवाए आटे को बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने खराब बताकर ऐसा उत्पाद हमारे सिर मढ़ दिया जिसके तैयार होने में उपभोक्ता की कोई भूमिका नहीं है। यानी पॉलीथीन में बंद आटे में कौन सा गेहूं है, वो ठीक से साफ हुआ या नहीं, शरीर के लिए फायदेमंद फायबर यानी चोकर उसमें है या नहीं ये सब हमें नहीं पता मगर फिर भी विज्ञापनों का दावा होता है कि ये हमारे लिए फायदेमंद है और हम जीवन की आपाधापी में थोड़ी सी मेहनत बचाने के लिए ये आटा खरीद रहे हैं। दुखद तथ्य ये है कि महानगरों से दूर छोटे शहरों में भी अब आटे की चक्की पुराने दिनों की बात हो गई है।
मशहूर अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी कुंद्रा और आहार विशेषज्ञ ल्यूक कुटिन्हो अपनी किताब द ग्रेट इंडियन डाइट में एक वाकये का जिक्र करते हैं कि फिल्म अभिनेता माधवन ने एक दुर्घटना का शिकार होने के बाद अपना वजन काफी बढ़ा लिया था। उन्होंने इस बारे में आस्ट्रेलिया के कुछ विशेषज्ञों से सलाह मांगी तो उन्होंने दिलचस्प बात कही। उन्होंने कहा कि आपको भारतीय भोजन की ओर लौट जाना चाहिए।
यानी हमारी सेहत का राज किसी विदेशी नहीं बल्कि भारतीय परंपरा में ही छिपा है। इसलिए अगली बार किसी विज्ञापन को देखने के बाद कोई सामान खरीदने से पहले ठिठक कर सोचिएगा कि क्या घर में सचमुच इसकी जरूरत है और क्या उस सामान के बदले घर में मौजूद सामग्री से वही चीज बनाई जा सकती है या नहीं। निश्चित रूप से आप पैसे के साथ सेहत भी बचा पाएंगे।
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